RITUVEDA

मंजुली प्रकाशन
आई-1/16, शान्ति मोहन हाऊस, अंसारी रोड़, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002

मूल्यः 250रू.

Website: www.manjuliprakashan.in
E-mail: manjuli_prakashan@rediffmail.com

ऋतुवेद

स्वस्थ जीवन एवं आहार-विहार
(चरक सूत्रस्थान तस्याशितीयाध्याय 06)

आज के वर्तमान संघर्षशील जीवन में जब इंसान का खान-पान व जीवनचर्या बदल चुकी है तब विश्व स्वास्थ्य संगठन ;ॅभ्व्द्ध द्वारा इसकी उपयोगिता को स्वीकार करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। पाश्चात्य देशों के स्त्री-पुरूषों का मांसाहार के बजाय शाकाहार को अपनाना इसी तथ्य का एक प्रमाण है। और यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विश्व के प्रत्येक स्त्री-पुरूष एवं बच्चे के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए सभी चिकित्सा-पद्धतियों में अग्रणी आयर्वेद की शरण ली है। आयुर्वेद सम्पूर्ण विश्व के सभी चिकित्सा विज्ञान में एकमात्र ऐसा शास्त्र है जो सम्पूर्ण शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, व्यक्तिगत एवं समाजिक स्वास्थ्य-कल्याण की बात करता है। तेषां उद्देश्यः स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षाणम् आतुरस्य प्रशमनं च। जहां स्वस्थ के स्वास्थ्य की रक्षा हेतु काल, वय, पथ्यानुसार खान-पान तथा विहार बताया गया है वहीं इन्हीं का अपथ्य रोगकारक तथा रोगों की चिकित्सा में अपथ्य को मना तथा पथ्य को हां कहा गया है। स्वास्थ्य के इसी मूलभूत सिद्धांत को अपनाते हुये प्रस्तुत ग्रंथ में प्रकृति की स्वभाविक बाह्म तथा देहिक व्यवस्था को दृष्टिगत रखते हुये आयुर्वेद की मानवता के प्रति दृष्टि को विश्व के सामने रखने का प्रयास किया गया है। विषय-वस्तु मुख्यतः आयुर्वेद मनीषी आचार्य चरक की संहिता के सूत्रस्थान के अध्याय छह तस्याशितीयमध्याय के 51 श्लोकों के सिद्धांत पर आधारित है। वर्षभर सूर्य, चंन्द्रमा व वायु की गति, स्थिति पृथ्वी की धुरी पर घूमती स्थिति के अनुसार बदलती रहती है। प्राचीनतम् ज्ञान यत् ब्रहााण्डे तत् पिण्डे सिद्धांत से ब्रहााण्ड के तीन प्रतिरूप मनुष्य या ब्रहा के शरीर में क्रमशः पित्त कफ, व वात के रूप् में विद्यमान होते है। विसर्गदान विक्षेपे सोमसूर्य निलायथा। धारयन्तिगद्देहं कफ पितानिलास्तथा।। सू. सू. 21

स्वभाविक है कि बाहरी मौसम के अनुसार इनका भी परिवर्तन दोषों के संचय, प्रकोप व प्रसार के रूप में स्पष्ट होता है। अतः प्रकट है कि उनके बदलते स्वरूप में स्वस्थ रहने हेतु प्रत्येक मनुष्य को उचित आहार-विहार अर्थात् खान-पान व क्रियाकलाप कर लेना चाहिए। अर्थात् मौसम के थपेड़ों में रोगग्रस्त न हों बल्कि प्रत्येक समझदार मनुष्य को उचित रूप से ऋतु या मौसम को अपने अनुकूल कर लेना चाहिये।